सत्संग के सरोवर में डुबकी लगाने से जीव का कल्याण होता है सतपाल महाराज

बिक्रमजीत सिंह

हरिद्वार सत्संग एक ऐसा सरोवर है जहां पर डुबकी लगाने से जीव का कल्याण होता है। जीव जब एकाग्रचित होकर परमात्मा की ओर अग्रसर होता है तो उसके हृदय में सद्भावना, आपसी भाई चारा एवम सहिष्णुता उत्पन्न होने लगती है, जिससे उसके जीवन में परिवर्तन आता है। संतो के द्वारा बताया गया मार्ग ही मानव जीवन को सफल बनाने एवं आदर्श स्थापित करने में सहायक होता है। उक्त बातें देहरादून हरिद्वार हाईवे स्थित चमगादड़ टापू पार्किंग मैदान में मानव उत्थान सेवा समिति की शाखा प्रेमनगर आश्रम के तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय विशाल सद्भावना सम्मेलन के समापन के अवसर पर उपस्थित विशाल जन समुदाय को संबोधित करते हुए आध्यात्मिक गुरु सतपाल महाराज ने कहा।उन्होंने कहा कि साधु संतों का जो सानिध्य है, यह अपने आप में एक तीर्थ के समान है। जहां यह माना जाता है कि व्यक्ति डुबकी लगाता है, अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर देता है। जैसे लोग गंगा जी में जाकर के डुबकी लगाते हैं, नाक और मुंह को बंद करके अपने शरीर को पानी की सतह के नीचे ले जाते हैं। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि जब तक हम पूर्ण रूपेण समर्पित अपने आपको नहीं करेंगे, जब तक हम हृदय को खोल करके सत्संग नहीं सुनेंगे, समर्पण

नहीं करेंगे, तब तक भक्ति का मर्म समझ में नहीं आएगा। महाराज जी ने आगे कहा कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसा भी कोई व्यक्ति हो जाए, तो भी गुरु के बिना उसका उद्धार नहीं होगा। इसलिए भगवान श्री कृष्ण को संदीपनि ऋषि के पास जाना पड़ा, भगवान श्री राम को वशिष्ठ जी के पास जाना पड़ा, विश्वामित्र के पास जाना पड़ा, विश्वामित्र ने उन्हें बताया और ज्ञान देने का काम किया। कहने का मतलब है कि ज्ञान का जो संपादन होता है, जो जीवित गुरु महाराज होते हैं, उनसे होता है।वही समय के सद्गुरु ज्ञान देकर जीव को भक्ति मार्ग में प्रशस्त करते हैं।पूज्य माता अमृता जी ने भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि हमें अगर संसार रूपी भवसागर को पार करना है तो हमारी एक ही निष्ठा, एक ही भक्ति, एक ही भाव एवं एक ही आस्था अपने गुरु महाराज जी के प्रति होनी चाहिए। अगर हमारी निष्ठा पूर्ण रूप से, तन-मन- धन से समर्पित है और गुरु महाराज के प्रति हमारी अगाध श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था है तो हम सब इस संसार रूपी भवसागर को पार कर सकते हैं। लेकिन अगर हमारे अंदर दूई की भावना है तो हम भी उस नाविक की तरह हैं जिसका एक पांव एक नाव में और दूसरा पांव दूसरे नाव में है, तो हम इस संसार रूपी भवसागर को पार नहीं कर सकते हैं।कार्यक्रम से पूर्व महाराज, पूज्य माता अमृता जी व अन्य विभूतियों का माल्यापर्ण कर स्वागत किया गया। मंच संचालन महात्मा हरिसंतोषानंद ने किया।

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